परंपराओं का वहन

सिर्फ पैर लगाना लात मारने के समान नहीं है,

लात तभी लगती है जब मन में घृणा एवं हानि पहुंचाने की चेष्टा हो ।

थाल घुमाना, दिया जलाना, काफी नहीं प्रार्थना के लिए,

मन में भक्ति भाव का होना आवश्यक है ।


समाज में काफी नियम कायदे ऐसे हैं, जिनके पीछे की चेष्टा को भूलकर हम बस सतह को सत्य मानकर उनकी पालना ऐसे करते हैं कि उन नियमों को बनाने वाले अगर स्वर्ग से हमें देख लें तो चिल्ला कर बोलेंगे कि भाई ये क्या कर रहे हो ? 

सामाजिक जीवन में सामाजिक नियमों की पालना होनी चाहिए । मनुष्य का मनुष्य पर विश्वास तभी रहता है जब परंपराओं का वहन किया जाता है । परंपराएं बहुत सोच विचार कर, समय के हिसाब से निखार कर प्रचलित की गई हैं । हमारा कर्तव्य है की उन्हें उनकी रूह तक जाकर समझें और सही मायने में उनका अनुरक्षण करें, ताकि हम अपने पूर्वजों द्वारा सींची गई संस्कृति को संजोकर रख सकें एवं अपने जीवन के उनका अनुसरण कर अपने जीवन को अर्थपूर्ण बनाएं एवं खोखलेपन से स्वयं का निवारण कर पाएं ।

यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि परंपराओं को उनके शब्दों से परे उनकी तह तक जाकर समझा जाए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके की हम वाकई परंपराओं की ही पालना कर रहे हैं या किसी मूर्ख द्वारा प्रचारित खोखले नियमों की ।